लकड़ी का कीड़ा (Wooden worm) Hindi Poetry :- " सोया-सोया सा, खोया-खोया सा मदमस्त चला जा रहा था मैं, मंजिल की तरफ शुक्र उस राह के काँटे का, जिसने मुझे चलना सिखा दिया "
लकड़ी का कीड़ा (Wooden worm)(Hindi Poetry)
मेरे अचेतन
सोये मन पर
कोई आहट सी
करता है वर्षों से
मेरे बिस्तर के नीचे
उसकी कर्कश ध्वनि
मानो कहती है
उठ ! जाग, सो मत
मैं जीवन के भोगों में मदमस्त
अपने से उलझता, उलझाता
फिर उसको सुलझाता
बुनते-बुनते फिर अपने ही
मकड़-जाल में बंद
अब मेरा ही
ये बूढ़ा तन
चुभता है मुझको
तब भी करवट बदल-बदल
सुनता हूँ, कहता उसको
उठ! जाग, मत सो
मैंने पूछ ही लिया
चुपके से उससे कानों में
बोला-"तूराज़" मैं भी तुझ सा
मानव ही था पहले
भोगों ने मुझसे, भुलाया है मुझको
मैंने भी परिवार बनाये
सोहरत और नाम कमाए
पर अपने को खो कर
आज लकड़ी का
कीड़ा बन पछताता हूँ
न सोता हूँ रातों को
वरन मानव को समझाता
और जगाता भी हूँ
उठ ! जाग, मत सो
मत खो अपने को
क्या तू भी है, मुझसा
लकड़ी का कीड़ा बनने को
तूराज़......
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